परिचय

त्रिलोक न्यारी, भगवान शिव की प्यारी, भारत की सांस्कृतिक राजधानी के रूप में सुविख्यात काशी, प्राचीन काल से ही धर्म, दर्शन, अध्यात्म, शिक्षा, कला, साहित्य एवं संगीत के क्षेत्रों में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती आ रही है। काशी की संगीत परंपरा अत्यंत प्राचीन है, जिसमें गायन, वादन, नर्तन की विभिन्न शैलियों के प्रणेता विद्वान एवं कलाविदों के रूप में काशी के महान व्यक्तियों ने अनेकों कीर्तिमान स्थापित कर काशी के गौरव को बढ़ाया है। काशी  उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत, उपशास्त्रीय संगीत और लोक संगीत की विभिन्न विधाओं से अत्यंत समृद्ध है। काशी का इतिहास रहा है कि यहां संगीत की परंपरा मंदिर व दरबार दोनों के ही आश्रय में फली फूली है।

         काशी की संगीत परंपरा उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत परंपरा का निर्वहन करती है। काशी में उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत में गायन के अंतर्गत ख्याल गायन के साथ ही साथ ध्रुपद धमार आदि की प्राचीनतम परम्परा आज भी प्रचलित है। तत् वाद्यों (तार वाले वाद्य) में वीणा,सितार, सारंगी, सुरबहार, सरोद आदि वाद्यों के वादन की परंपरा वर्षों से चली आ रही है। सुशिर वाद्यों (फूंककर बजने वाले वाद्य) में बांसुरी की तो परंपरा है ही साथ ही शहनाई वाद्य के लिए काशी अत्यंत प्रसिद्ध है।भारत रत्न से सम्मानित कलाकार उस्ताद बिस्मिल्लाह खान शहनाई के लिए ही जाने जाते हैं। अवनद्ध वाद्य (चमड़े से मढ़े) में बनारस घराना तबले का प्रमुख घराना माना जाता है और इसके अलावा पखावज वादन की परंपरा (जो ध्रुपद परम्परा से सम्बंधित है) भी है। नृत्य कला में उत्तर भारतीय शास्त्रीय नृत्य कथक जिसका बनारस घराना अत्यंत प्रचलित है और जिसमें विश्वविख्यात कथक नर्तक गोपी किशन जी और कथक क्वीन सितारा देवी स्वयं बनारस घराने की प्रतिनिधि कलाकार रही हैं।(घराने से तात्पर्य है -कुटुंब,परिवार या कुल, संगीत के घराने ऐसे ही कुल के नाम से जाने जाते हैं जो इनके जन्मदाता रहे हैं। प्रत्येक घराने की अपनी विशेषता होती है और वह अपनी परंपरा व शैली का ही अनुयाई होता है, वह स्वयं गुरु का पुत्र/पुत्री या शिष्य भी हो सकता है) उपशास्त्रीय गायन में बनारस अंग की ठुमरी, दादरा का सरस गायन किया जाता है,लोक संगीत में कजरी और चैती का रंग शास्त्रीय संगीत से प्रभावित होता है जिसे कलाकार अत्यंत रोचक ढंग से प्रस्तुत करते हैं।सभी घरानों नें अपनी मौलिकता एवं विशेषता से अपनी अलग पहचान बनाई और सभी घरानेदार एक दूसरे की मौलिक विशेषताओं का हृदय से आदर करते हैं। आज भी यह गौरवशाली परम्परा प्रवाहमान है।

काशी दो तरह के संगीत साधकों से समृद्ध रही है एक वह जो यहां पर जन्मे दूसरे वह जो किसी स्थान से काशी में आए। आज भी काशी में संगीत की परंपरा अत्यंत समृद्ध है, वर्तमान कलाकार परम्परागत संगीत की शिक्षा के साथ-साथ संगीत की संस्थागत शिक्षा की ओर भी अग्रसर है, जिससे संगीत के प्रयोग और शास्त्र दोनों में सन्तुलन बनाते हुए काशी की संगीत परंपरा का संवर्धन हो सके।

       काशी की इस समृद्ध विरासत को संरक्षित रखते हुए भावी पीढ़ी को इससे परिचित कराने तथा स्थानीय और देश के अन्य भागों के कलाकारों को काशी में मंच प्रदान करने के उद्देश्य से जिला प्रशासन वाराणसी द्वारा जिलाधिकारी, वाराणसी की अध्यक्षता में “काशी विरासत संरक्षण समिति” का गठन किया है। समिति का उद्देश्य काशी की समृद्ध सांस्कृतिक विरासतों का संरक्षण, संवर्धन और प्रचार-प्रसार है। इसके अंतर्गत काशी के नवनिर्मित ‘नमो घाट’ पर “काशी वन्दन” नाम से दैनन्दिन सांस्कृतिक संध्या का आयोजन किया जा रहा है। इस आयोजन में संगीत की सभी विधाओं- गायन, वादन, नृत्य के कलाकारों को अवसर प्रदान किया जायेगा। मौसम के अनुरूप प्रतिदिन गोधुली बेला (सूर्यास्त के आस-पास का समय) में सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित होगा, जिससे काशी के स्थानीय संगीत रसिक और बाहर से आने वाले पर्यटक नित्य-प्रति संगीत का आनन्द प्राप्त कर सकें। इस आयोजन में कोई भी कलाकार अपनी प्रस्तुति दे सकता है। इसके लिए उसे काशी विरासत संरक्षण समिति की वेबसाईट के माध्यम से आवेदन करना होगा। समिति द्वारा स्वीकृति के उपरान्त उसे प्रस्तुति सम्बन्धी आवश्यक सूचना प्राप्त हो जाएगी।  

       नमो घाट, वरुणा-गंगा के संगम के समीप, मालवीय सेतु के उत्तर में पावन गंगा नदी के बाएं तट पर स्थित है। इस नवनिर्मित सुन्दर घाट के पार्श्व में प्राचीन काशी की राजधानी ‘वाराणसी’ के उत्खनित अवशेषों को भी देखा जा सकता है। नमो घाट काशी के चौमुखी विकास का प्रतीक है जहाँ जल-थल-नभ तीनो तरह के यातायात का मार्ग उपलब्ध है।

      काशी को आनन्द कानन भी कहा जाता है, यहाँ सभी के लिए सदैव आनन्द और मंगल कि कामना की जाती है….      

काश्यां सर्वत्र मंगलम्

“काशी में सब ओर सभी अवस्थाओं में मंगल ही है।”